भारत में जिस सभ्यता का निर्माण किया गया उसका मूल आधार स्थिरता और सुरक्षा की भावना थी .. इस दृष्टी से वह उन तमाम सभ्यताओं से कहीं अधिक सफल रही जिनका उदय पश्चिम मैं हुआ था.. वर्ण-व्यवस्था और संयुक्त परिवारों पर आधारित सामाजिक ढाँचे ने इस उद्शेय को पूरा करने में सहायता की ...यह व्यवस्था अच्छे-बुरे के भेद को मिटाकर सबको एक स्तर पर ले आती है और इस तरह व्यक्तिवाद की भूमिका इसमें बहुत कम रह जाती है ...यह दिलचस्प बात है की जहाँ भारतीय दर्शन अत्यधिक व्यक्तिवादी है और उसकी लगभग सारी चिंता व्यक्ति के विकास को लेकर है वहाँ भारत का सामाजिक ढांचा सामुदायिक था और उसमे सामाजिक और सामुदायिक रीति -रिवाजों का कड़ाई से पालन करना पड़ता था...
इस सारी पाबंदी के बावजूद पुरे समुदाय को लेकर बहुत लचीलापन भी था... ऐसा कोई कानून या सामाजिक नियम नहीं था जिसे रीति-रिवाज से बदला न जा सके ...यह भी संभव था की नए समुदाय अपने अलग-अलग रीति- रिवाजों, विश्वासों और जीवन- व्यवहार को बनाए रखकर बड़े सामाजिक संगठन के अंग बने रहे इसी लचीलेपन ने विदेशी तत्वों को आत्मसात करने में सहायता की .....
समन्वय केवल भारत में बाहर से आने वाले विभेन्न तत्वों के साथ नहीं किया गया, बल्कि व्यक्ति के बाहरी और भीतरी जीवन तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच भी समन्वय करने का प्रयास दिखाई पड़ता है... इस सामान्य सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ने भारत का निर्माण किया और इस पर विविधिता के बावजूद एकता की मोहर लगाई राजनीतिक ढांचें के मूल में स्वशासी ग्राम व्यवस्था थी राजा आते-जाते रहे पर यह व्यवस्था नीवं की तरह कायम रही बाहर से आने वाले नए लोग इस ढाँचे में सिर्फ सतही हलचल पैदा कर पाते थे ...राज सत्ता चाहे देखने में कितनी निरकुंशता लगाती हो, रीति-रिवाजों और वैधानिक बन्धनों से कुछ इस तरह नियंत्रित रहती थी की कोई शासक ग्राम समुदाय के सामान्य और विशेषाधिकारों में आसानी से दखल नहीं दे सकता था ... इन प्रचलित अधिकारों के तहत समुदाय और व्यक्तित्व दोनों की स्वंत्रता एक हद तक सुरक्षित रहती थी
ऐसा लगता है की ऐसे हर तत्व ने जो बाहर से भारत आया और जिसे भारत ने जज्ब कर लिया भारत को कुछ दिया और उससे बहुत कुछ लिया जहां वह अलग-थलग रहा, वहाँ वह अंततें नष्ट हो गया और कभी-कभी इस प्रकिया में उसने खुद को ही या भारत को नुकसान पहुँचाया.....
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nice
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