ये शीशे, ये धागे, ये रिश्ते, ये बंधन ....
किसे क्या पता की ये कब टूट जाए ?
वादों के सहारे ये पल-पल है जीना ....
किसे क्या पता की कब छूट जाए ?
रोज जी कर फिर मरना, और मरकर फिर जीना....
आदत ही पड सी जाती है, ये सब भूल जाने की.....
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर......
पर किसे क्या पता की, वो सांस कब टूट जाए ?
जिस पर राह पर चलना जो सीखा ....
बदलते पग-पग पर देखे तुम्हारे वो निशाँ ...
न जाने वह राह अब कहाँ से हम भटक जाए ....
ये शीशे ये धागे ये रिश्ते ये बंधन .....
किसे क्या पता की ये कब टूट जाए ?
शनिवार, अप्रैल 24, 2010
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3 टिप्पणियां:
सुन्दर कविता. बधाई.
कुछ शीतल सी ताजगी का अहसास करा गई आपकी रचना।
बडी ही भावुक करने वाली रचना है मित्र।
शुभकामनाएं
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