कुछ कहना है ......

स्कूल टाइम से ही मुझको कुछ न कुछ लिखने का शौक था... और वह कॉलेज टाइम में जाकर ज्यादा परिपक्व होने लगा... इस टाइम में मैंने बहुत ही रचनायें लिखी पर कभी उन रचनायों को किसी को दिखाया नहीं, कुछ रचनाएं न जाने कहाँ खो गयी और कुछ घर के एक कोने में पड़ी रही , एक दिन उनमे से कुछ रचना हाथ में लग गयी और फिर मन में लिखने की भावना जाग गयी ...याद आ गए मुझको कुछ बीते पल जब ये रचनाएं लिखी थी .... आज उन्ही रचनायों को पेश कर रहा हूँ ...पर न जाने पसंद आये न आये फिर भी एक छोटी सी कोशिश कर ही बैठा और एक ब्लॉग बनाया जिसमे ये सब कुछ जारी कर दिया ....जो आज सब सामने है यही मेरी यादगार है और कोशिश करता रहूँगा की आगे भी लिखता रहूँ ..............

कभी कभी जीवन में ऐसे पड़ाव आते है ...जब आदमी अपने आप में संकुचित हो जाता है ...ऐसे अवस्था में उसके मन की व्यथा जानना बहुत ही कठिन होती है .... और इस समस्या का सबसे अच्छा समाधान है, लेखन की कला, ये बात अलग है की लेखन कला इतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है ,किसी के पास लिखने के लिए बहुत कुछ होता है, पर शब्द नहीं होते है ....जिसके पास शब्द होते है, उसके पास लिखने के लिए कुछ नहीं होता है, पर हालात ही ऐसे परीस्थिति है ... जो सब कुछ सिखा देती है इन्ही हालातों के नज्ररिये को अच्छी तरह से परखा जाए तो आदमी अपने आपको लिखते लिखते ही मन की व्यथित अवस्था को काबू में कर लेगा .......







आप और हम

शनिवार, फ़रवरी 27, 2010

नींद और मृत्यु में अंतर


आपने शायद कभी इस मुद्दे पर ध्यान दिया हो या आपको यूँ ही ख्याल आया हो की हम रोज रात को जो सोते हैं वह एक प्रकार से हमारी  मृत्यु की रिहार्सिल है या यह भी कहा जा सकता ही की हम रोज रात को मर जाते हैं और सुबह फिर से जन्म लेते हैं.. यह बात आपको अटपटी और बेतुकी लग सकती है पर एक दृष्टि से देखें तो ये बात गलत नहीं है... यह बात आपको अटपटी और बेतुकी इसलिए लग सकती है की आप जब सुबह जागते है या कह लीजिये की नया जनम लेते है तो उसी शरीर में होते हैं जिसमे रात को सोये थे, उसी घर के के उसी बिस्तर पर जागते है है जिस पर रात को सोये थे उसी वातावरण  में जागते है जिसमे सोये थे यानी सब कुछ वैसा का वैसा ही रहता है इसलिए ऐसा ख्याल तक नहीं आता की रात को मर गए थे और सुबह फिर पैदा हो गए...  एक उदहारण  से बात जरा और साफ़ हो जायेगी.... एक दार्शनिक ने कहा की आप एक नदी में दो बार नहीं कूद सकते है... आप कहेंगे की यह  भी भला क्या बात हुई ? दो बार क्या हम उस नदी में दस बार कूद कर दिखा सकते हैं पर जरा गहरे में ,विचार करे तो पाएंगे की वाकिए हम  एक नदी में दो बार नहीं कूद सकते है क्योंकि जब हम दूसरी बार कूदेंगे तब वह पानी तो बह चूका होगा जिसमे पहली बार कूदे थे लेकिन चूँकि नदी के आसपास का दृश्य वही होता है स्थिति वही होती है ,किनारे पर बने हुए घाट और  झाड  पेड़ वही होते है तो हम समझते है की नदी वही  है जिसमे हम पहली बार कूदे थे.... बस , यही स्थिति सुबह सोकर उठने पर हमारे सामने होती हो और हम समझते है की हम वही जो इस बिस्तर में पर रात को सोये थे पर जरा दार्शनिक ढंग से सोचे तो यह बात रहस्य समझ सकेंगे की प्रकृति ने रोज सोने का जो नियम बनाया है वह शरीर को आराम देने के साथ  ही साथ यह एहसास करने के लिए भी बनाया है की एक दिन इसी  तरह से हमेशा की नींद सोना है ... रात को जब आप सुषुप्त अवस्था में  होते है  यानी ऐसी   गहरी नींद जिसमे सपना भी नहीं देखते , उस वक़्त आपको खुद अपने होने का भी ख्याल नहीं रहता है की आप है भी , आप होते हुए भी ,  नहीं  हो जाते है , उस सुषुप्त अवस्था में हम अपने अस्तित्व  का अनुभव नहीं करते हालांकि हम इसी शरीर में होते हैं तभी तो दिल धडकता   रहता है सांस चलती रहती है और रक्त संचार होता रहता है और ये सभी हमारे जीवित होने के लक्षण है  पर ये लक्षण तो शरीर के जीवित होने के होते है  जिसके होते हुए भी हम नहीं होते , हमारा अहंकार यानी " मैं हूँ " का एहसास नहीं होता  शरीर के होते हुए भी हम नहीं होते और  मृत्यु के बाद हम होते है पर तब शरीर नहीं होता बस नींद और मृत्यु में इतना ही फर्क है ...................

लफ्जों का सिलसिला रखना


अपने ख़त में यूँ ही लफ्जो का  सिलसिला रखना ......
मिलने की चाहत को यूँ ही दबाए रखना .....
दूर तुम चाहे जितना भी हो अपनी प्यार का फासला रखना.....
मिलने की  कुछ नहीं चाह ,पर यादों का सिलसिला जारी रखना.....
 कभी यूँ उजालों से वास्ता रखना .....
शमां के पास भी अपनी  दास्ताँ रखना .....
भीड़ में हम भी बैठे हैं, हर शक्स  अनजान लगता है.....
पर तुम उस भीड़ में अपनी पहचान कायम रखना ....
कुछ राज है अब मेरे सीने में....
दिन बहुत ही कम है जीने में....
तुम इस राज को कायम रखना ......
हम मरें या जीयें  खतों को अपने क़दमों की पास रखना .....
वक़्त बहुत ही कम है बस अपना एक दिन मेरे नाम कर देना.....
दूर से रूह देखेगी हमारी....
उस रूह को यूँ जी झूठा सलाम कर देना .....
फिर न लौट के आयेंगे हम,
न तुझको सतायंगे हम,
ये मेरा तुमसे वायदा है,
बस इस इरादे को कायम रखना .....
यूँ ही उजालों से वास्ता रखना .....
जब भी कभी याद आये हमारी तो अपने पास दीपक जलाए रखना....
उन खतों को सजाये रखना ............

शुक्रवार, फ़रवरी 19, 2010

ये अंदाज नहीं बदला

तुमसे जितना भी दूर रहा, पर तुम्हारा प्यार न बदला.....
जीवन में कितनी ही मुश्किले आई, पर तुम्हारा साथ न बदला.....
हर पल तुम मुझसे  जुड़े रहे,
पर कसम से तुम्हारे जीने का अंदाज न बदला.....
कैसी है ? तुमने कसम खायी मेरे यार.......
दुनिया बदली हर वक़्त बदला ,
पर तुम्हारा वक़्त नहीं बदला...
जाम से जाम मैंने कितने टकराए....
पर तुम्हारे साथ पीने का जाम न बदला...
रात गयी और दिन भी गया ,
पर तुम्हारा दिन न बदला.......
प्यार के हर लब्ज संभाले तुमने पर ,
लब्जो का अंदाज नहीं बदला  ............
ये सारे अंदाज तो नहीं थे मेरे  दिल में...........
पर तुम्हारे प्यार का इजहार न भुला ...
करता हूँ सलाम तुम्हारे हर एक क्षण को,
इतना कुछ होकर भी मैं  तुम्हारे जैसा तो हो न सका
पर मैंने तुमको सदैव याद करने का अंदाज नहीं बदला ....

मंगलवार, फ़रवरी 16, 2010

पथराई आँखें

उस दिन जब वृद्धा को देखा तो मेरी आँखें नम हो उठी, सारा संसार इधर से उधर हो जाए पर वृद्धा अपने स्थान से टस से मस नहीं होती, और देखा जाए होती भी कैसे?  अब तो बस सड़क ही उसका घर बन गया था जो गाँव से बाहर शहर की तरफ जाती है ..रोज जब भी मैं वहा से निकलता तो वृद्धा  की नम आँखो  को जरूर देखता .... आस-पास के मुसाफिर गुजरते हुए, उसको भीख दे जाते थे ..पर वह कैसे  बताती की वह भिखारिन नहीं  है ? वह तो सिर्फ इस राह पर अपने पुत्र  की राह देख रही है ..जो पांच साल से अपनी माँ  को इसी राह पर छोड़कर गया था.. की कुछ   धन कमाकर ही आऊंगा.. पर वह आज तक नहीं आया.. और माँ  ने अपने पुत्र का मौन हृदय से  इंतजार करते-करते यही सड़क किनारे एक बरगद के वृक्ष  के नीचे बिता दिए.. सर्दी गर्मी वर्षा  ये मौसम वृद्धा के लिए कुछ मायने नहीं रखते थे ..कभी किसी ने कुछ दे दिया तो खा लिया, और नहीं दिया तो भूखे पेट ही सो जाती थी.. इन हालातो मैं न  जाने हर वक़्त यही सोचता था  की क्या-क्या नहीं प्रश्न उठते होंगे ? इस वृद्धा के हृदय में, और कभी- कभी तो मैं वृद्धा को इतना विचलित होते देखता, की जब भी शहर से कोई बस गाँव की तरफ इस सड़क पर रूकती..  तो उसकी आँखें एकदम प्रश्न से व्याकुलित  हो उठती .. और बस के अंदर घुस कर पूरा चक्कर लगाती, कहीं उसका पुत्र वापस तो नहीं आगया...  उस समय मैं ..अपने आपको बहुत असहाय महसूस करने लगता था इन्तजार जितना करते वह और बदता  ही चला जाता है... कैसी विडम्बना होती है हृदय की ...समय का रथ चलता है ,पर इस वृद्धा का तो  इंतजार अंत होने तक नहीं  आया .. सच जीवन में कितनी कठोरता है,, जब बस से बाहर आती तो कुछ पल के लिए निराश हो जाती, पर जरा हिम्मत  तो देखो फिर से उस राह की तरफ नजर बढ़ाकर इंतजार के लिए तैयार हो जाती ..आँखें से अंश्रु  सूख चुके  थे ..अब तो लगता था, की यह आँखें कुछ पल में बंद हो जायेगी ,परन्तु नहीं.... वह  तो तैयार  थी, इंतज़ार के लिए मन कितना ही व्याकुलित हो उठता  है ? उस वृद्धा की हालात देखकर पर क्या करे यह इंतज़ार तो पता नहीं कब तक खतम होगा ..वृद्धा की आँखें बिल्कुल सूख चुकी  थी.. बालों  में तो जैसे पता नहीं कब से तेल ही नहीं लगाया बिखरे हुए बालों से उम्र  का पड़ाव नजर आता था.. और ऐसा पड़ाव जिसकी मंजिल होकर भी  मंजिल नहीं होती .. पतली दुबली सी वृद्धा की काया को देखकर लगता था.. की यह पेट के लिए नहीं ,बल्कि इंतज़ार के लिए जीवन व्यतीत कर रही थी.. फटी हुई तथा अस्त-व्यस्त  धोती जो लपेट रखी थी .पता नहीं कब से पहनी हुई थी ? कैसा यह इंतज़ार का प्रण था जो कभी पूरा होता ही न दीखता था? उस दिन मौसम बहुत खराब था... गाँव में वर्षा के कारण  काफी पानी भर चुका था... ऐसी वर्षा मैंने अपने जीवन में पहले कभी न देखी थी... बादल गरज-गरज कर अपने होने का एहसास कराते और बिजली  अंधकार में ज्यादा चमकते हुई भयानक लग रही थी... पता नहीं यह वर्षा किसी अनहोनी घटना की सूचना दे रही थी ? मन भयभीत सा हो उठा था.. की लगता है, कुछ अनहोनी न घट जाए ..सारी रात भर वर्षा होती रही ,और बादल गरजते रहे सुबह  देखा तो मौसम कुछ-कुछ साफ़ हो गया ..अचानक मेरे मन में उस वृद्धा के बारे ख्याल आया की पता नहीं रात भर उसका क्या हाल हुआ होगा? मैंने फ़टाफ़ट अपने वस्त्र बदले  और उस सड़क की तरफ  चल पड़ा.. और पहुँचते ही देखा की आस-पास भीड़   लगी हुई थी.. मेरा हृदय एकदम से विचलित हो उठा....  सब लोग आपस में विचार विमर्श कर रहे थे की बेचारी पांच साल से अपने पुत्र  का शहर से वापस आने का इंतज़ार कर रही थी...  और आज इंतज़ार करते-करते  मर गई....  लोगो के शब्द  मेरे कानों में पड रहे थे और मैंने वृद्धा की आँखों  की तरफ देखा तो दंग रह गया ...उसकी आँखें खुली  हुई थी.... और उस राह की तरफ देख रही थी जहां से अपने पुत्र को  शहर के लिए विदा किया था ... और लगता है, की वह मरने के बाद भी उसकी  आँखें पुत्र के लौट आने का इंतजार कर रही थी.. कितना दर्द भरा ... यह दृश्य था.. मन रोने लगा.. रात भर मौसम  की मार झेलते-झेलते उसने अपने इंतजार ख़तम नहीं किया, बल्कि मरने के बाद भी वह इंतजार में थी... कुछ लोगो ने वृद्धा को उठाकर उसका अंतिम -संस्कार कर दिया ...मै जब भी उस सड़क से गुजरता तो ,  उस और ज़रुर देखता जहां वृद्धा अभी भी इंतजार कर रही है यही सोचते-सोचते मेरे आँखों में अंश्रु आ जाते.. और प्रश्न भाव  से सोचता.. की पथराई आँखों ने इंतजार का फ़ासला तय करते-करते  अपनी जान दे दी ......




सोमवार, फ़रवरी 15, 2010

जीवन के इस पतझड़ में



आज फिर मन की करुण पुकार उमड़ आई ....
सुन लो दुःख भरी गाथा कहती पास मेरे  चली आई ....
व्याकुल हो उठा तन-मन से झट वेदना उमड़ आई ....
बहुत बड़ी है यह  हृदय विडम्बना संभालो रे कोई निज भाई ....
चलते- चलते तड़पकर -तड़पकर भी चलना हमने सीखा ....
फिर क्यों आज कदमो में है बनी रुसवाई ?
 अश्रुओं  की बुँदे मन में कभी थी छाई....
आज क्यों बनकर शूल पग-पग में है यह आई ?
बूंद-बूंद बन झरना प्यासे को दिखलाए  अंगडाई ....
डूब गए हम इतना  की निकल   सके न  भाई  ....
जीवन के साथ सफ़र में  मृत्युं  भी चली आई  ......
कैसा है यह खेल,जीवंन  के कठोर सफ़र का....
कोई तो यह समझा दे मेरे प्यारे निज भाई ....
साथ-साथ चलता जीवन मृत्युं  के यह खेल.....
पल में मरना,पल में जीना यह बात समझने में कुछ न आई ....
है प्रिये क्या तुम देख रही हो हाल बेहाल मेरा ?
यदि हाँ कर दो तो, फिर हो जाए  जीवन में एक नया सवेरा ....
बढ़ा दो एक बार तुम हाथ, करो प्रिये तुम विशवास ....
देखो सारे जग में हमारा हो रहा है ह्वास उपहास  .....
वह दीपक मेरे मन में जिसकी थी  जलाई तुमने आस....
दीपमाला बनकर जगमगाती थी तुम मेरे आस-पास.....
पुष्पों की सी  मधुर खुशबु बन बस जाती थी तपती साँसों में.....
झनक-झनक पायल बज गुंजन बन जाती थी कर्णौं में.....
तुम ही तुम  रच बसते  थे, प्रिये मेरे हृदय में ......
विरह की यह कठोर व्यथा बड़ी चली जाती है, क्यों पल-पल में .....
याद करो, तुम याद करो वह साथ गमन वन-उपवन में....
वायदा किया था तुमने चलना जीवन के साथ सफ़र में....
अब कहाँ बसती हो तुम आजाओ इस शून्य भरे जीवन में.....
कर दो फिर एक नया बसंत जीवन के इस पतझड़ में.....
कर दो फिर एक नया बसंत जीवंन  के इस पतझड़ में ..... 

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

जीवन का अर्थ

 आज तक जीवन के अर्थ को समझ न पाया.....
कभी मरने, कभी जीने का इसने एहसास करवाया......
हर शक्स को मैंने हंस हंस के गले लगाया ...........
लेकिन अपने प्रति न  किसी को समर्पित पाया ............
सच है जीवन की इन घड़ियों की कैसी है माया  ????????
पल-पल कभी हंसाया तो कभी तड़पाया...........
चलता हूँ उन राहों पर जिनकी मंजिल नहीं होती..........
फिर भी  न जाने क्यों मैं चलकर भी लडखडाया ?????????
किसी के एहसास और स्पर्श के लिए तड़पते पाया ............
न जाने कैसी है यह  हृदय की विडंबना ?
जीवन की हर वस्तू की तलाश में अपने को नाकाम पाया ....
अपने रोते हुए दामन को प्यार के लिए खाली पाया ....
बढता चला जा  रहा हूँ फिर भी एक तलाश के लिए.....
जानता हूँ न मंजिल है न सफ़र है......
फिर भी  मेरी जिंदगी शायद यही मेरा बसर है......
खतम होगा कहां यह न खोज है न खबर है .......
बस अब तो इस "दीपक " की बुझने की कसर है .......
इन्ही कारणो से अपने को सदैव गुमनाम पाया .....
तभी तो कहता हूँ  इतना कुछ होकर भी .....
सच आज तक जीवन के अर्थ को समझ नहीं पाया  ......

शनिवार, फ़रवरी 06, 2010

एक बार चले आओ




पहली बार में ही देखते लगा की, तुम वही परवेश हो जिसका प्रेम का एक हिस्सा मेरे लिए ही बना था..
याद है, वो पल जब तुमने कॉलेज के उस परिसर में मुझको पहली बार धक्का मार गिराया था... एक शरारती भरी नजरों से, पर मैंने
कुछ नहीं कहा था... क्योंकि तुम्हारे नयनो में एक मूक मित्रता भरा निमंत्रण था.. उस मित्रता के बहाव से मै बहुत ही आनंदविभोर हो गया था....
उस दिन के बाद हम दोनों कॉलेज के परिसर की शान बन गए थे... पर जब भी तुम्हारी ख़ामोशी को देखता था, तो मुझको कुछ अजीब से छिपाव लगता था ...
ऐसा लगता था.. की मित्र भाव से तुम दूर जाना चाहते थे.. पर जा नहीं पाते थे... जब तुमने एक दिन मुझको अपनी बिमारी के बारे में बताया .. तो
मेरा हृदय विचलित सा हो गया था ऐसा लगा की मेरा हृदय थम सा गया बहुत ही निराशा से मैंने कई दिन बिताये थे... और फिर धीरे- धीरे
तुम्हारा मुख बुझने सा लगा.. तुम्हारी कैंसर की बिमारी से बेहाल होता जा रहा था .. मुझको बहुत अजीब सा एहसास हो रहा था मन करता था की समय का पहिये को रोक दूं
पर कैसे ? तुम्हारे मुख में कहीं भी कोई शिकस्त नहीं दिखती थी.. मेरा हृदय अन्दर ही अन्दर बहुत ही रोता था .. और एक दिन जब तुमने मेरी बाहों में दम तोड़ा तो में मूक दर्शक बनकर रह गया था.. तुमने दम तोड़ने से पहले मुझसे एक वायदा लिया था की कभी किसी से नाराज नहीं होना और हमेशा हँसते ही रहना तुम्हारी इन बातों के पीछे न जाने क्या राज था ? पर आज तुम्हारे बाद इन वचनों की अहमीयत समझ आती है और फिर दिल बार बार कहता है मेरा की "एक बार चले आओ"