
स्मिरितियों की परिधि में फिर से बंध सा जाता हूँ .....
कभी मुक्त तो कभी कैद सा पाता हूँ .......
जीवन का संघर्ष देखकर कुछ घबरा सा जाता हूँ........
सोचते सोचते याद आ जाता वह सुनहरा अतीत......
जिसमे अपनी सुखानुभूति का एहसास पाता हूँ........
पल पल में प्रतारण और पल में वियोग इनसे विचलित हो जाता हूँ.......
घूमते है वह दृश्य शूल बनकर नयनपथ के आगे ,
झरते है आँसू और असीम वेदना से विवश हो जाता हूँ.......
तुम्हारी स्मिरितियों का घेराव कमजो़र निबल कर देता है ......
जीवन के ये गम डूबने के लिए किसी शराब से कम नहीं,
डूबते शराब से भी है किन्तु गम का भी कोई जवाब ही नहीं.......
विस्मय भाव से आँखें टुकर कर देखती है .......
मृत्युं की दस्खत भी आवाज देकर दूर चली जाती है......
रुक जाते है कदम, और बंध जाते है स्मिरितियों के उन घेरों में,
वह रिश्ता जो बना था ख़तम होने के लिए,
उस रिश्ते की परिधि में कैद पाते अपने को......
कुछ टूट गए, कुछ बने ,कुछ बनते ही बिगढ़ गए.....
वही कम्पित लहराते हाथ,
दूर तक देखती गुमसुम पथराईं आँखें डगमगाते कमजौर आशा को लिए,
शायद अभी भी मुक्त हो जाए स्मिरित्यों के घेरों से......
जीवन की विडंबना और तरसती हुई आँखों से ,
भर जायेगी जिंदगी की किताब बेदाग़ अफसानो से......
मिटते रहेंगे हम जैसे हजारों तुम्हारी प्रेम की राहों से......