कुछ कहना है ......

स्कूल टाइम से ही मुझको कुछ न कुछ लिखने का शौक था... और वह कॉलेज टाइम में जाकर ज्यादा परिपक्व होने लगा... इस टाइम में मैंने बहुत ही रचनायें लिखी पर कभी उन रचनायों को किसी को दिखाया नहीं, कुछ रचनाएं न जाने कहाँ खो गयी और कुछ घर के एक कोने में पड़ी रही , एक दिन उनमे से कुछ रचना हाथ में लग गयी और फिर मन में लिखने की भावना जाग गयी ...याद आ गए मुझको कुछ बीते पल जब ये रचनाएं लिखी थी .... आज उन्ही रचनायों को पेश कर रहा हूँ ...पर न जाने पसंद आये न आये फिर भी एक छोटी सी कोशिश कर ही बैठा और एक ब्लॉग बनाया जिसमे ये सब कुछ जारी कर दिया ....जो आज सब सामने है यही मेरी यादगार है और कोशिश करता रहूँगा की आगे भी लिखता रहूँ ..............

कभी कभी जीवन में ऐसे पड़ाव आते है ...जब आदमी अपने आप में संकुचित हो जाता है ...ऐसे अवस्था में उसके मन की व्यथा जानना बहुत ही कठिन होती है .... और इस समस्या का सबसे अच्छा समाधान है, लेखन की कला, ये बात अलग है की लेखन कला इतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है ,किसी के पास लिखने के लिए बहुत कुछ होता है, पर शब्द नहीं होते है ....जिसके पास शब्द होते है, उसके पास लिखने के लिए कुछ नहीं होता है, पर हालात ही ऐसे परीस्थिति है ... जो सब कुछ सिखा देती है इन्ही हालातों के नज्ररिये को अच्छी तरह से परखा जाए तो आदमी अपने आपको लिखते लिखते ही मन की व्यथित अवस्था को काबू में कर लेगा .......







आप और हम

सोमवार, फ़रवरी 15, 2010

जीवन के इस पतझड़ में



आज फिर मन की करुण पुकार उमड़ आई ....
सुन लो दुःख भरी गाथा कहती पास मेरे  चली आई ....
व्याकुल हो उठा तन-मन से झट वेदना उमड़ आई ....
बहुत बड़ी है यह  हृदय विडम्बना संभालो रे कोई निज भाई ....
चलते- चलते तड़पकर -तड़पकर भी चलना हमने सीखा ....
फिर क्यों आज कदमो में है बनी रुसवाई ?
 अश्रुओं  की बुँदे मन में कभी थी छाई....
आज क्यों बनकर शूल पग-पग में है यह आई ?
बूंद-बूंद बन झरना प्यासे को दिखलाए  अंगडाई ....
डूब गए हम इतना  की निकल   सके न  भाई  ....
जीवन के साथ सफ़र में  मृत्युं  भी चली आई  ......
कैसा है यह खेल,जीवंन  के कठोर सफ़र का....
कोई तो यह समझा दे मेरे प्यारे निज भाई ....
साथ-साथ चलता जीवन मृत्युं  के यह खेल.....
पल में मरना,पल में जीना यह बात समझने में कुछ न आई ....
है प्रिये क्या तुम देख रही हो हाल बेहाल मेरा ?
यदि हाँ कर दो तो, फिर हो जाए  जीवन में एक नया सवेरा ....
बढ़ा दो एक बार तुम हाथ, करो प्रिये तुम विशवास ....
देखो सारे जग में हमारा हो रहा है ह्वास उपहास  .....
वह दीपक मेरे मन में जिसकी थी  जलाई तुमने आस....
दीपमाला बनकर जगमगाती थी तुम मेरे आस-पास.....
पुष्पों की सी  मधुर खुशबु बन बस जाती थी तपती साँसों में.....
झनक-झनक पायल बज गुंजन बन जाती थी कर्णौं में.....
तुम ही तुम  रच बसते  थे, प्रिये मेरे हृदय में ......
विरह की यह कठोर व्यथा बड़ी चली जाती है, क्यों पल-पल में .....
याद करो, तुम याद करो वह साथ गमन वन-उपवन में....
वायदा किया था तुमने चलना जीवन के साथ सफ़र में....
अब कहाँ बसती हो तुम आजाओ इस शून्य भरे जीवन में.....
कर दो फिर एक नया बसंत जीवन के इस पतझड़ में.....
कर दो फिर एक नया बसंत जीवंन  के इस पतझड़ में .....