आज फिर मन की करुण पुकार उमड़ आई ....
सुन लो दुःख भरी गाथा कहती पास मेरे चली आई ....
व्याकुल हो उठा तन-मन से झट वेदना उमड़ आई ....
बहुत बड़ी है यह हृदय विडम्बना संभालो रे कोई निज भाई ....
चलते- चलते तड़पकर -तड़पकर भी चलना हमने सीखा ....
फिर क्यों आज कदमो में है बनी रुसवाई ?
अश्रुओं की बुँदे मन में कभी थी छाई....
आज क्यों बनकर शूल पग-पग में है यह आई ?
बूंद-बूंद बन झरना प्यासे को दिखलाए अंगडाई ....
डूब गए हम इतना की निकल सके न भाई ....
जीवन के साथ सफ़र में मृत्युं भी चली आई ......
कैसा है यह खेल,जीवंन के कठोर सफ़र का....
कोई तो यह समझा दे मेरे प्यारे निज भाई ....
साथ-साथ चलता जीवन मृत्युं के यह खेल.....
पल में मरना,पल में जीना यह बात समझने में कुछ न आई ....
है प्रिये क्या तुम देख रही हो हाल बेहाल मेरा ?
यदि हाँ कर दो तो, फिर हो जाए जीवन में एक नया सवेरा ....
बढ़ा दो एक बार तुम हाथ, करो प्रिये तुम विशवास ....
देखो सारे जग में हमारा हो रहा है ह्वास उपहास .....
वह दीपक मेरे मन में जिसकी थी जलाई तुमने आस....
दीपमाला बनकर जगमगाती थी तुम मेरे आस-पास.....
पुष्पों की सी मधुर खुशबु बन बस जाती थी तपती साँसों में.....
झनक-झनक पायल बज गुंजन बन जाती थी कर्णौं में.....
तुम ही तुम रच बसते थे, प्रिये मेरे हृदय में ......
विरह की यह कठोर व्यथा बड़ी चली जाती है, क्यों पल-पल में .....
याद करो, तुम याद करो वह साथ गमन वन-उपवन में....
वायदा किया था तुमने चलना जीवन के साथ सफ़र में....
अब कहाँ बसती हो तुम आजाओ इस शून्य भरे जीवन में.....
कर दो फिर एक नया बसंत जीवन के इस पतझड़ में.....
कर दो फिर एक नया बसंत जीवंन के इस पतझड़ में .....