आज तक जीवन के अर्थ को समझ न पाया.....
कभी मरने, कभी जीने का इसने एहसास करवाया......
हर शक्स को मैंने हंस हंस के गले लगाया ...........
लेकिन अपने प्रति न किसी को समर्पित पाया ............
सच है जीवन की इन घड़ियों की कैसी है माया ????????
पल-पल कभी हंसाया तो कभी तड़पाया...........
चलता हूँ उन राहों पर जिनकी मंजिल नहीं होती..........
फिर भी न जाने क्यों मैं चलकर भी लडखडाया ?????????
किसी के एहसास और स्पर्श के लिए तड़पते पाया ............
न जाने कैसी है यह हृदय की विडंबना ?
जीवन की हर वस्तू की तलाश में अपने को नाकाम पाया ....
अपने रोते हुए दामन को प्यार के लिए खाली पाया ....
बढता चला जा रहा हूँ फिर भी एक तलाश के लिए.....
जानता हूँ न मंजिल है न सफ़र है......
फिर भी मेरी जिंदगी शायद यही मेरा बसर है......
खतम होगा कहां यह न खोज है न खबर है .......
बस अब तो इस "दीपक " की बुझने की कसर है .......
इन्ही कारणो से अपने को सदैव गुमनाम पाया .....
तभी तो कहता हूँ इतना कुछ होकर भी .....
सच आज तक जीवन के अर्थ को समझ नहीं पाया ......
शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010
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