कुछ कहना है ......

स्कूल टाइम से ही मुझको कुछ न कुछ लिखने का शौक था... और वह कॉलेज टाइम में जाकर ज्यादा परिपक्व होने लगा... इस टाइम में मैंने बहुत ही रचनायें लिखी पर कभी उन रचनायों को किसी को दिखाया नहीं, कुछ रचनाएं न जाने कहाँ खो गयी और कुछ घर के एक कोने में पड़ी रही , एक दिन उनमे से कुछ रचना हाथ में लग गयी और फिर मन में लिखने की भावना जाग गयी ...याद आ गए मुझको कुछ बीते पल जब ये रचनाएं लिखी थी .... आज उन्ही रचनायों को पेश कर रहा हूँ ...पर न जाने पसंद आये न आये फिर भी एक छोटी सी कोशिश कर ही बैठा और एक ब्लॉग बनाया जिसमे ये सब कुछ जारी कर दिया ....जो आज सब सामने है यही मेरी यादगार है और कोशिश करता रहूँगा की आगे भी लिखता रहूँ ..............

कभी कभी जीवन में ऐसे पड़ाव आते है ...जब आदमी अपने आप में संकुचित हो जाता है ...ऐसे अवस्था में उसके मन की व्यथा जानना बहुत ही कठिन होती है .... और इस समस्या का सबसे अच्छा समाधान है, लेखन की कला, ये बात अलग है की लेखन कला इतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है ,किसी के पास लिखने के लिए बहुत कुछ होता है, पर शब्द नहीं होते है ....जिसके पास शब्द होते है, उसके पास लिखने के लिए कुछ नहीं होता है, पर हालात ही ऐसे परीस्थिति है ... जो सब कुछ सिखा देती है इन्ही हालातों के नज्ररिये को अच्छी तरह से परखा जाए तो आदमी अपने आपको लिखते लिखते ही मन की व्यथित अवस्था को काबू में कर लेगा .......







आप और हम

शनिवार, फ़रवरी 06, 2010

एक बार चले आओ




पहली बार में ही देखते लगा की, तुम वही परवेश हो जिसका प्रेम का एक हिस्सा मेरे लिए ही बना था..
याद है, वो पल जब तुमने कॉलेज के उस परिसर में मुझको पहली बार धक्का मार गिराया था... एक शरारती भरी नजरों से, पर मैंने
कुछ नहीं कहा था... क्योंकि तुम्हारे नयनो में एक मूक मित्रता भरा निमंत्रण था.. उस मित्रता के बहाव से मै बहुत ही आनंदविभोर हो गया था....
उस दिन के बाद हम दोनों कॉलेज के परिसर की शान बन गए थे... पर जब भी तुम्हारी ख़ामोशी को देखता था, तो मुझको कुछ अजीब से छिपाव लगता था ...
ऐसा लगता था.. की मित्र भाव से तुम दूर जाना चाहते थे.. पर जा नहीं पाते थे... जब तुमने एक दिन मुझको अपनी बिमारी के बारे में बताया .. तो
मेरा हृदय विचलित सा हो गया था ऐसा लगा की मेरा हृदय थम सा गया बहुत ही निराशा से मैंने कई दिन बिताये थे... और फिर धीरे- धीरे
तुम्हारा मुख बुझने सा लगा.. तुम्हारी कैंसर की बिमारी से बेहाल होता जा रहा था .. मुझको बहुत अजीब सा एहसास हो रहा था मन करता था की समय का पहिये को रोक दूं
पर कैसे ? तुम्हारे मुख में कहीं भी कोई शिकस्त नहीं दिखती थी.. मेरा हृदय अन्दर ही अन्दर बहुत ही रोता था .. और एक दिन जब तुमने मेरी बाहों में दम तोड़ा तो में मूक दर्शक बनकर रह गया था.. तुमने दम तोड़ने से पहले मुझसे एक वायदा लिया था की कभी किसी से नाराज नहीं होना और हमेशा हँसते ही रहना तुम्हारी इन बातों के पीछे न जाने क्या राज था ? पर आज तुम्हारे बाद इन वचनों की अहमीयत समझ आती है और फिर दिल बार बार कहता है मेरा की "एक बार चले आओ"